Sunday, September 21, 2008

पहले साल किया बस आराम..दूसरे साल हाय राम !

लड़कियों की बात से याद आया कि १९९२ यानि हम से एक सत्र पहले छात्राओं कि संख्या ५० से १०० के बीच थी जो हमारे बैच में घाट कर १०-२० रह गयी थी। उसका एक मुख्या कारण ये था कि एक साल पहले तक लड़कियों के लिए एंट्रेंस परीक्षा में आरक्षण और ग्रेस मार्क्स थे जो १९९३ में हटा दिए गए। अन्दर कि बात ये थी कि हम में से काफी लोग इस बात से नाखुश थे कि हमारे क्लास में बस २-५ लडकियां ही थीं। ५० की क्लास में मात्र २-५ लडकियां। बहुत नाइंसाफी थी बॉस!

लड़कियों के हॉस्टल के सामने आते ही लडकियां हमारी रैगिंग शुरू कर देतीं। मैं ये बताना भूल गया कि मेरी उस दौरान कुछ ख्याति हो गयी थी एक गवैय्ये के रूप में। मेरे साथ रहने वाले मेरे दोस्त इस बात से खासे रुष्ट रहते थे कि ये तो गाने गा कर रैगिंग से जल्दी छुट्टी पा लेता है और हम फँस जाते हैं। अब इस में मेरी क्या गलती ? खैर, सीनियर लड़कियों के एक ग्रुप ने मुझे रोका और कुछ गाने को बोला। मैंने गाना शुरू किया। उन में से एक ने कहा - "रुको, कुछ ऐसा करने को दूँगी कि मुश्किल हो। हम्म.... चलो के एल सहगल का गाना 'जब दिल ही टूट गया' गाओ और रॉक एंड रोल स्टाइल में डांस करो!" मैं बता नहीं सकता वो मेरे लिए कितना मुश्किल काम रहा!

मेरी एक और खासियत थी। मैं उस मुश्किल दौर में भी जम के सो लेता था। मैं कभी भी सो लेता था। आधे घंटे भी मिले तो सो लिए। मुझे याद है एक बार हमारे कमरे में मेरे रूम मेट रैगिंग दे रहे थे और मैं रजाई के अन्दर घुसा सोने का नाटक कर रहा था। सीनियर लड़कों ने जब अनुराग से गुर्रा के पूछा - 'ये सो क्यों रहा है??' , तो अनुराग ने कह दिया - 'सर, इसकी तबियत खराब है।' और मैं बच गया। अनुराग, अगर तुम ये पढ़ रहे हो, तो मैं तुम्हारा शुक्रिया अदा करना चाहता हूँ दोस्त !

फर्स्ट इयर इज रेस्ट इयर। ऐसा बहुत से लोग मानते थे। रैगिंग का दौर जब कुछ थमा तो लोग जश्न के मूड में आ गए। सिंदरी धनबाद डिस्ट्रिक्ट में बसता है। धनबाद, सिंदरी, झरिया, दिग्वादिः - ये सारे अगर आपको पता हो, कोल बेल्ट में आते है। अगर आप इन इलाकों में सड़क से जाते हैं तो पब्लिक ट्रांसपोर्ट का सबसे मुख्या साधन Trekkers ही हैं। आने जाने में हालत ये हो जाती थी कि शरीर के अंग अंग में कोयले कि खुराक घुस जाती थी। कपडे बुरी तरह गंदे हो जाते थे। हॉस्टल ७ के पास ही सिंदरी का रेलवे स्टेशन हुआ करता था जहाँ से दिन भर में शायद २-३ ट्रेने धनबाद के लिए जाती थीं। लगभग एक घंटे का ये सफ़र हमारे लिए शिमला कि वादियों जैसा सफ़र हुआ करता था।

सिंदरी शेहेर कि आप बात करें तो बहुत ही छोटा शहर है। मुख्यतः सिंदरी fertilizer कारपोरेशन और ACC cement factory हैं वहां। हमारे बैच में नीरज कुमार नाम का एक डे स्कॉलर था जिसके पिताजी वही काम करते थे। वो अक्सर सिंदरी एक साइकिल से आया जाया करता था। सिंदरी का मार्केट एरिया बहुत ही छोटा हुआ करता था। हमारे लिए उस में मुख्या आकर्षण का केंद्र था शहर का एक मात्र सिनेमा हॉल। कितनी अजीब बात है कि जो सिनेमा हॉल हमारे लिए इतना ख़ास हुआ करता था आज मुझे उसका नाम याद नहीं आ रहा! शायद कुछ गूगल करने से हासिल हो। खैर, इस सिनेमा हॉल में हमने पहली फिल्म गोविंदा और चंकी पांडे की फिल्म 'आँखें' ही देखी थी। उसी दौरान शाहरुख़ खान कि 'डर' फिल्म भी आई थी। वो भी इसी सिनेमा हॉल में देखी। फिल्मों का ज़िक्र होते ही मेरे जेहन में ऐसे अनेक वाक़ये याद आते हैं जो हमारी फिल्म देखने से जुड़े थे।

(क्रमशः)

3 comments:

Anonymous said...

Dear Amit, u will be surprised to know that there is now no more small upmarket which we had known as shaharpura, is uprooted now.I doesn,t exist any more.Fertilizer and Cement factory is hardly known by anybudy.
And dear sometimes try to remember the names of other people also who hailed from patna and was a sole evidence of ur marriage.This is unfair boss.

Unknown said...

Amit.....

Let me tell you that your musings are uber cool but you are a better writer in English than in Hindi :p
Actuslly being a southie I find it difficult to follow!!
But love to read your blogs anytime.
Harjeet

Amarendra said...

hello sir,
This is Amarendra from 97 batch.ECE. Nice to read your blog.
The name of the theatre was Kalpana talkies.............