Saturday, September 20, 2008

वो पहली बार, जब हम मिले ..

जब हम हॉस्टल नम्बर ७ के कमरे में जमा हुए तो एक दूसरे का नाम जान रहे थे। अनुराग और अरुण को तो मैं पहले से जानता था पर बाकी लोगों से इन्त्रोदुक्शन होना बाकी था। एक गोरा सा लड़का था जिसने अपना नाम कुछ इतना लंबा बताया कि दोबारा पूछना पड़ा। उसने फ़िर बताया। इस बार ध्यान से सुना। अमिताभ बच्चन के बाद ये दूसरा नाम था जिसका नाम और उपनाम दोनों १ किलोमीटर लंबे थे। बिम्लेंदु चौधरी - दरभंगा निवासी।

अब आई एक ऐसे शख्श कि बारी जो सबसे अलग रहा था। सबसे ज्यादा परेशान और हैरान। नाम पूछने पे बताया - राजेश कुमार वर्मा। उस वक्त हमें ये एहसास नहीं था कि ये आदमी १९९३ सत्र का सबसे लोकप्रिय व्यक्ति साबित होगा। खैर, उसकी कहानी बाद में।

अपने कमरे में सेटल हुए बस कुछ ही दिन हुए थे कि अचानक एक दिन हमें बताया गया कि एक और आगंतुक हमारे कमरे का हिस्सा बनेगा। एक सरकारी हॉस्पिटल कि तरह तो हमारा कमरा पूरा भर चुका था। अब किस वी आई पी को admit करने वाले हैं? हमने कुछ हद तक इसका विरोध तो किया पर हॉस्टल के २० से भी जयादा कमरों में एक हमारा ही कमरा उस नए वी आई पी के लिए उपयुक्त पाया गया। बड़े ही दबे मन से हमने उसे अपने कमरे में accept कर लिया। उसके लिए एक अलग खटिये का भी इन्तेजाम हुआ।

आप सोच रहे होंगे कि मैंने अभी तक हमारे कमरे के उस वी आई पी member का नाम क्यों नहीं बताया। वो इसलिए कि हम उस से इतनी नफरत करते थे कि उसके नाम के अलावा बाकी सारे नामों से बुलाते थे। यूँ समझिये कि कभी नाम पूछने कि ज़रूरत ही नहीं महसूस हुयी। फिर भी एक दिन पूछ ही लिया। अमित कुमार ठाकुर - उसने अपना नाम और परिचय कुछ ऐसे अंदाज़ में दिया जैसे हम उसका नाम सुनते ही पहचान जायेंगे। इतनी बक बक करता था कि भेजा फ्राई बनाके रख देता था। उसका स्कूल दुनिया का सबसे बढ़िया स्कूल। उसका शहर दुनिया का सबसे अच्छा शहर। पर धीरे धीरे हमने उसे अपने ग्रुप का हिस्सा बना ही लिया। अब पानी में रहकर मगरमच से क्या वैर करना ?

हलाँकि हम सब एक दूसरे का नाम पता खानदान सब मालूम कर रहे थे पर हमारे वर्त्तमान हालत एक जैसे ही थे। सीनियर स्टूडेंट्स के द्वारा कि गई रैगिंग ने हम सबको ऐसे सूत्र में बाँध दिया था कि हम जल्दी ही एक दूसरे के काफ़ी करीब आ गए। हमारा कमरा छत के सबसे पास वाला आखरी कमरा हुआ करता था। अक्सर जब बाथरूम में नहाने का पानी ख़तम हो जाता तो हम अपनी अपनी बाल्टी लिए , मात्र एक तौलिया लपेटे , हाथ में साबुन लिए छत पे बने पानी कि टंकी नहाने चले जाते थे। वो कहते हैं न लंगोटिया यार। बस ऐसा समझिये कि हम सब लंगोट में मिलते मिलते एक दूसरे के लंगोटिया यार बन गए।

हॉस्टल का खाना खाने लायक नहीं था। अक्सर दाल और पानी में अन्तर पता नहीं चलता। चावल में कंकड़ और रोटी में जलन देखने कि आदत सी हो गई थी। उस वक्त एहसास हुआ कि घर बैठे दो वक्त माँ के हाथ का खाना कया होता है। कभी जब मम्मी कि याद ज्यादा आ जाती तो फ़ोन कर लिया करते। पर धीरे धीरे सब चीज़ों कि आदत पड़ गई।

रैगिंग के दौरान हम सब लड़कों की मूछें मुंडवा दी गई। लड़कियों की हालत तो और बुरी थी। उन्हें दो चोटी बनाकर, उन में अलग अलग रंग के फीते बंधने पड़ते। वैसे तो हमारे हॉस्टल से हमारे क्लास रूम का फासला २०० गज से भी कम था पर वो सीधा रास्ता हमारे लिए वर्जित था। ये रास्ता TIGER रोड के नाम से जाना था। वो इसलिए कि इस सीधे रास्ते पर केवल सीनियर स्टुडेंट ही चल सकते थे। एक दूसरा रास्ता था जो पड़ोसी के घर पूरे शहर का चक्कर लगाने बाद जाने का था। इसे मुर्गा रोड के नाम से जाना जाता। २ से ३ कि मी लंबे इस रास्टे में हम एक कतार में खड़े हो कर जाते थे। पूरे रास्ते अपने खट्टे मीठे अनुभव share करते हुए जाते और इसी दौरान हमें पूरे कैम्पस का सर्वेक्षण का भी मौका मिलता। स्टाफ क्वाटर, दूसरा मुख्या द्वार, घने पेड़ - ये सब तो इस रास्ते में थे ही, पर कुछ ऐसा भी था जिसकी जिज्ञासा लड़कों में भी बनी रहती थी। लड़कियों का हॉस्टल।

(क्रमशः)

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